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जीएसटी - जनता की जेब से आखिरी कौड़ी भी छीन लेने पर आमादा पूँजीपतियों की नई चाल

जीएसटी - जनता की जेब से आखिरी कौड़ी भी छीन लेने पर आमादा पूँजीपतियों की नई चाल


जीएसटी पर बहुत सारे लोग इस बात की आलोचना कर रहे हैं कि यह बगैर तैयारी के लागू की जा रही है| तो माना जाय पूरी तैयारी से लागू होने पर इसे जनता के हित में मानकर इसका स्वागत किया जाता? नोटबंदी के वक़्त भी मैंने इस क़िस्म की आलोचना पर सवाल उठाया था|इस क़िस्म की आलोचना एक समान हितों वाले वर्ग रहित समाज में ही की जा सकती है| मौज़ूदा वर्ग विभाजित, ग़ैरबराबरी और शोषण पर आधारित समाज में प्रत्येक नीति का विभिन्न वर्गों पर असर समझे बग़ैर चर्चा बेमतलब है| इस दृष्टिकोण से कुछ अहम् बिंदु:
1. पूँजीवादी जनवाद के दृष्टिकोण से भी अप्रत्यक्ष करों के दायरे को बढ़ाना एक प्रतिगामी कदम है क्योंकि इनकी दर सभी के लिए 'समान' होने से आमदनी के हिस्से के तौर देखें तो जितनी कम आमदनी हो उसका उतना बड़ा हिस्सा कर में देना पड़ता है और जितनी ज्यादा आमदनी उतना कम हिस्सा| जहाँ पूँजीवाद अपने प्रगतिशील दौर में स्थापित हुआ था उन तुलनात्मक विकसित देशों में कुल करों का 2 तिहाई प्रत्यक्ष करों और एक तिहाई अप्रत्यक्ष करों से वसूल किया जाता है| भारत में पहले ही ठीक इसका उल्टा है अर्थात 2 तिहाई अप्रत्यक्ष करों के जरिये आता है और अब इनका दायरा और बढ़ाया जा रहा है| इसके विपरीत ज्यादा आमदनी पर ज्यादा लगने वाले प्रत्यक्ष करों - आयकर, कॉर्पोरेट कर, संपत्ति कर, विरासत कर, आदि में छूट दी जा रही है या ख़त्म किया जा रहा है|
2. बहुत सारे छोटे व्यवसाय अब तक कर दायरे के बाहर थे और इनके उत्पाद ही पटरी-ठेले, गाँव के हाट-बाजारों, मेलों में सस्ते दाम पर ग़रीब जनता के लिए उपलब्ध थे| अब इनमें से बहुत सारे कर के दायरे में आयेंगे, इनकी लागत - कर की रक़म और प्रशासनिक लागत - बढ़ेगी| इनके उत्पादों की कीमत बढ़ने से नुकसान किसका? इनके गरीब, फटेहाल खरीदारों को ही यह कर देना पड़ेगा|
3. छोटे कारोबारियों की लागत बढ़ने, बहु राज्य कारोबारियों की लागत और प्रशासनिक बोझ कम होने, एक राज्य से दूसरे में यातायात-सप्लाई की रुकावटें कम होने से छोटे, अनौपचारिक कारोबारों को मिलने वाला स्थानीयता का लाभ समाप्त होगा, बडे पूँजीपतियों की इजारेदारी बढ़ेगी| इसीलिए पूँजीपतियों के सारे संगठन और उनका भोंपू मीडिया इससे पक्ष में इतने साल से माहौल बना रहा है|
4. 93% रोज़गार अनौपचारिक, लघु क्षेत्र में है, संगठित क्षेत्र उन्नत तकनीक, श्रमिकों पर अधिक उत्पादकता के दबाव, परिमाण की मितव्यवयता (economies of scale) की वज़ह से उतने ही उत्पादन के लिए कम रोज़गार देता है| इसलिए इज़ारेदारी के बढ़ने से रोज़गार और भी कम होगा| सामाजिक हित के लिए उत्पादन बढ़ाने के लिए यह अच्छा ही होता क्योंकि तब श्रमिकों पर काम का बोझ कम कर बेरोजग़ारों को खपाया जा सकता था| लेकिन हम तो मुनाफे, सिर्फ मुनाफे, के लिए उत्पादन वाली व्यवस्था में हैं, इसलिए इसका इस्तेमाल सिर्फ श्रमिकों की संख्या कम कर मुनाफा बढ़ाने में होगा|
5. अयोजित पूँजीवादी व्यवस्था की वजह से पहले से ही असमतल विकास, क्षेत्रीय असंतुलन वाले देश में एक बाज़ार इस इलाकाई असंतुलन को और बढ़ायेगा जैसे 1949 की पूरे देश में हर दूरी के लिए समान भाड़ा नीति ने किया था|
6. कई दरों, जटिल वर्गीकरण और दुरूह प्रक्रियाओं ने इससे चोरी-भ्रष्टाचार कम होने वाली बात की भी हवा पहले ही निकाल दी है, जैसे इंस्टेंट कॉफ़ी और रोस्टेड कॉफ़ी अलग दरों में आती हैं| यही सब चीजें नौकरशाही के लिए सबसे प्रिय होती हैं और क़ारोबारी-राजनीति गठजोड़ का आधार|

इस पर एक साल पुराना लेख जो मज़दूर बिगुल, मई 2016  अंक में प्रकाशित हुआ था

जीएसटी और अन्य टैक्स नीतियों का मेहनतकशों की ज़ि‍न्दगी पर असर

पिछले कुछ सालों से बडी चर्चा है जीएसटी की। सारा बुर्जुआ प्रचार तंत्र और उसके भाँड अर्थशास्त्री -विशेषज्ञ ऐसा समां बाँधने की कोशिश कर रहे हैं कि जीएसटी लागू होने से अर्थव्यवस्था में बडी तेजी आयेगी, कारोबार में तरक्की होगी और रोजगार के मौके बढेंगे। कु्छ छोटे बिन्दुओं को छोडकर सारी बुर्जुआ राजनीतिक पार्टियाँ भी इस पर कमो बेश एक राय हो चुकी हैं और अब सिर्फ एकमात्र शेष मुद्दा उनका आपस का यह द्वंद्व है कि किस को इसके लिये कितना श्रेय मिले। सवाल उठाना लाजिमी है कि आखिर जीएसटी में ऐसा क्या है कि पूरा बुर्जुआ तंत्र इस के लिये एक राय होकर इतना उतावला है और इसका मेहनतकश तबके के जीवन पर क्या असर होगा? इस दृष्टिकोण से इसका अध्ययन-विश्लेषण किया जाना बहुत जरूरी है।

जीएसटी लागू करने और इसके असर को समझने के लिये पहले हमें पूँजीवादी समाज में टैक्स नीति के कुछ मूल बिन्दूओं को समझना होगा। निजी सम्पत्ति पर आधारित पूँजीवादी व्यवस्था में राजसत्ता के खर्च को चलाने के लिये उत्पादन, आय, सम्पत्ति, व्यापार, आदि पर कर लगाना शासन व्यवस्था का एक आवश्यक अंग है। लेकिन यह सिद्धांत भी बुर्जुआ मानवतावादी जनतांत्रिक चिंतन की ही उपज था कि एक क्रमिक (Progressive) कर प्रणाली होनी चाहिये। इसका अर्थ है कि कर की दर आमदनी/सम्पत्ति के बढने के क्रम में बढनी चाहिये। लेकिन यह विचार 20वीं सदी में मजबूत मेहनतकश आन्दोलनों के डर से ही कुछ हद तक लागू हो पाया था। क्रमिक कराधान नीति के अनुसार व्यक्तिगत आयकर की दरें आमदनी के बढते क्रम में होनी चाहिये और कॉर्पोरेट कर भी इसके अनुरूप हो। साथ ही बडी सम्पत्ति पर सम्पत्ति कर और उसके उत्तराधिकार पर एस्टेट ड्युटी भी लगाई गयी। यह कर प्रणाली पूँजीवादी व्यवस्था में शोषण से मुक्ति तो नहीं पर मेहनतकश लोगों को कुछ तात्कालिक राहत प्रदान करती थी।

लेकिन जैसे ही मेहनतकश जनता के आन्दोलन अपने भटकावों की वजह से कमजोर पडे और पूँजीवादी व्यवस्था का संकट और तेज हुआ, बाकी देशों की तरह भारत में भी शासक वर्ग ने इस क्रमिक कर प्रणाली को बदलना शुरु कर दिया। लगातार परजीवी बनते पूँजीपति वर्ग ने नीति अपनाई करों का बोझ खुद से कमकर ज़्यादा से ज़्यादा पहले से ही शोषित मज़दूर, किसान, निम्न मध्य वर्गीय लोगों पर डालने की। इसके लिये आयकर/कॉरपोरेट कर की उच्चतम दरों को तो जाहिर है कम किया ही गया लेकिन और भी सूक्ष्म/जटिल कदम उठाये गये जो आम जनता को सीधे नजर न आयें लेकिन कर का बोझ अमीर तबके से कम कर गरीब लोगों के सिर पर डाल दें। इन उपायों की विस्तृत चर्चा नीचे है।

आय के कई स्रोत हैं। हालाँकि मेहनतकश लोगों के लिये तो उनकी मज़दूरी या छोटे-मोटे काम-धंधे से होने वाली बचत ही आय का मुख्य स्रोत है लेकिन जैसे-जैसे उच्च आय वर्ग की तरफ बढते हैं उनकी आय में वेतन का हिस्सा बहुत कम रह जाता है और उनकी ज़्यादातर आय आती है ब्याज, लाभांश और पूँजीगत लाभ से। ब्याज हम जानते हैं, लाभांश का मतलब है व्यवसाय के मुनाफे में पूँजी के मालिकों को मिलने वाला हिस्सा और पूँजीगत लाभ का मतलब है किसी सम्पत्ति – जमीन-मकान-शेयर-बॉन्ड्स, आदि – की कीमत में होने वाली बढत से मिलने वाला लाभ। तो चालाकी से परिवर्तन यह किया गया कि आय के इन स्रोतों पर वेतन आदि जैसी आयकर की सामान्य दरें लागू होने के बजाय कम दरें लागू की गईं। जैसे लाभांश पर बहुत साल से शून्य आयकर था; अब 10 लाख से ऊपर वाली रकम पर दोबारा लगाया गया लेकिन सामान्य 30% के बाजाय सिर्फ 10%। इसी प्रकार पूँजीगत लाभ पर शून्य, 5, 10 या 20% की दरें है (20% की दर के साथ उसे कम करने के लिये सूचीकरण का उपाय भी साथ ही है)। साथ ही सम्पत्ति कर और एस्टेट ड्युटी तो समाप्त ही कर दी गयी है। इस सबका सीधा नतीजा है कि जहाँ हमें बताया जाता है कि अमीर लोगों पर 30% का आयकर है वहाँ असल में सबसे अमीर लोगों को आपनी आय का लगभग मात्र 10 – 15% ही टैक्स देना होता है, वह भी अगर चोरी न करें तो! अगर कम्पनियों की बात करें तो इस बार के बजट में सरकार ने खुद बताया है कि घोषित 30% की दर के बजाय सबसे बडी कम्पनियाँ सिर्फ 21% की दर से ही कॉर्पोरेट टैक्स का भुगतान करती हैं।

अब बात करें गरीब मेहनतकश जनता पर लगने वाले करों की। कुछ लोग आश्चर्य करेंगे कि क्या गरीब लोग भी टैक्स देते हैं! ऐसा एक दुष्प्रचार समाज में खडा किया गया है कि सिर्फ 4% लोग ही टैक्स देते हैं और गरीब लोग सिर्फ सरकार से सबसिडी पाते हैं। लेकिन यह सच नहीं है – देश के सब लोग टैक्स देते हैं, गरीब से गरीब मज़दूर भी। असल में ऊपर जिन करों की बात हमने की वह हैं प्रत्यक्ष कर यानी जिस पर टैक्स लगा उसने दिया। दूसरे किस्म के कर हैं अप्रत्यक्ष कर जो लगते कम्पनियों/व्यापारियों पर हैं लेकिन जिनको आखिर देता आम नागरिक है क्योंकि वस्तुओं-सेवाओं की कीमतों में इन्हें शामिल कर लिया जाता है! यह है सेल्स्, वैट, एक्साइज, कस्टम्स, सर्विस टैक्स, चुंगी, आदि। तथाकथित आर्थिक सुधारों का एक पहलू इस प्रकार के अप्रत्यक्ष करों को लगाना और बढाना है। कुछ साल पहले 8% से शुरु हुआ सर्विस टैक्स देखते-देखते 15% पहुँच चुका है।

तीसरा पहलू है कर प्रणाली और सामान्य अर्थव्यवस्था में ऐसे नियम बनाना जिससे पूँजीपति तबका अपनी आमदनी/दौलत के एक बडे हिस्से को देश के बाहर ले जा सकें और कोई भी टैक्स न चुकायें। अगर वोडाफोन के मामले पर ध्यान दें तो पहले हच नाम की कम्पनी भारत में अपना मोबाइल कारोबार चलाती थी। फिर उसने यह कारोबार वोडाफोन को बेच दिया लेकिन भारत में स्थित सम्पत्ति की खरीद-बिक्री का यह काम हांगकांग में कर लिया गया और इस तरह लगभग 9,000 करोड रुपये का टैक्स बचा लिया गया। ऐसे ही अन्य बहुत से मामले हैं भारत में कारोबार करते या सम्पत्ति रखते बहुत सारे लोग खुद को दूसरे देशों का निवासी/नागरिक घोषित कर यहाँ शून्य या बहुत कम टैक्स अदा करते है।
👉 अब इस परिस्थिति में देखते हैं जीएसटी को। ऊपर बताये गये अप्रत्यक्ष करों – सेल्स, सर्विस, एक्साइज, चुंगी, वैट, आदि – को मिलाकर अब एक नया कर जीएसटी लगाने का प्रस्ताव है। जीएसटी का एक मकसद तो है पूरे देश के पैमाने पर एक ही टैक्स व्यवस्था लागू करना। इससे पूरे देश में कारोबार करने वाली कम्पनियों को टैक्स के हिसाब व कागजी कार्रवाई में सहूलियत होगी। दूसरे, अभी सभी राज्यों में अलग नियम व कर दरें होने से बडी कम्पनियों को विभिन्न राज्यों के बाजार में कारोबार के लिये स्थानीय कारोबारियों के साथ अलग-अलग तरीके से प्रतियोगिता के लिये तैयार होना पडता है। जीएसटी लागू होने से पूरे देश का बाजार अब एक ही नियमों से संचालित होगा और बडे पूँजीपतियों के लिये इस ऐकीकृत बाजार में अपनी इजारेदारी/नियंत्रण स्थापित करना आसान हो जायेगा। आज बहुत सारी कम्पनियों को राज्यों के भिन्न टैक्स कानूनों के कारण राज्यवार अपने कारोबार को संचालित करना पडता है और कई मामलों में इस हिसाब से कुछ फैक्टरियाँ/गोदाम बनाने की भी जरूरत पडती है। जीएसटी लागू होने से यह जरूरत कम होगी और कुछ स्थानों से ही वह कुशलता से अपना कारोबार चला सकेंगी। कुछ स्थानों पर केन्द्रीकृत बडे कारखानों/गोदामों को चलाने के लिये कम मज़दूरों/कर्मचारियों की जरूरत होगी और वह श्रमिकों के वेतन पर अपना खर्च कम करने की स्थिति में होंगी; मतलब और मुनाफा। यही वजह है कि फिक्की, ऐसोचैम, सीआयीआयी, आदि पूँजीपतियों के संगठन इसके लिये सरकार और राजनीतिक दलों पर भारी दबाव बनाये हुए हैं।
👉 जीएसटी का दूसरा पहलू है जनता पर इसका असर अर्थात ज़्यादा से ज़्यादा वस्तुओं और सेवाओं को करों के दायरे में लाना और इन करों की दर को ऊँचा करना। अभी जीएसटी के लिये 18 से 22% तक की दर की चर्चा सुनने में आ रही हैं अर्थात इसके लागू होने पर ज़्यादातर वस्तुओं-सेवाओं पर इतना कर देना पडेगा। उदाहरण के लिये 100 रुपये का मोबाईल रिचार्ज कराने पर उसका 18 से 22% प्रतिशत जीएसटी में जायेगा। नतीजा, और महँगाई। जिन देशों में पहले जीएसटी लागू हुई है उनमें ज़्यादातर में इसके बाद मुद्रास्फीति/महँगाई में वृद्धि हुई है; और भारत में यह मानने की कोई वजह नहीं कि ऐसा नहीं होगा।
👉 तीसरी बात है कि यद्यपि जीएसटी की दर कहने के लिये सब पर बराबर होगी लेकिन इसका असर अमीर और गरीब लोगों पर बराबर नही होगा। जहां ज़्यादातर गरीब लोग अपनी सारी कमाई से किसी तरह जीवन चलाते हैं तो उनकी पूरी आय पर यह 18 से 22% टैक्स लग जायेगा क्योंकि जीएसटी लगभग सभी वस्तुओं – सेवाओं पर लगेगा। वहीं क्योंकि अमीर तबका अपनी आय का एक छोटा हिस्सा ही इन पर खर्च करता है तो आमदनी के हिस्से के रूप में देखा जाये तो वास्तव में गरीब मेहनतकश लोगों पर ज़्यादा टैक्स और जितना अमीर उतना ही कम!
👉 कुल मिलाकर देखा जाये तो जीएसटी समेत इन टैक्स नीतियों की दिशा है पूँजीपति वर्ग को करों के बोझ से जितना हो सके बचाना और पूँजीवादी राजसत्ता को संभालने का बोझ भी पहले से ही शोषित-पीडित मेहनतकश तबके पर बढाना और उसकी पहले से ही सीमित आय में इस जरिये से और भी कटौती कर देना। इसका नतीजा होगा पूँजीपतियों के हाथ में धन और सम्पदा का और भी ज़्यादा केन्द्रीकरण और मज़दूर वर्ग की जिन्दगी में और भी ज़्यादा तबाही। असल में आज की स्थिति में शासक पूँजीपति वर्ग की वर्तमान व्यवस्था के संचालन में भी सिर्फ एक ही भूमिका रह गयी है – परजीवी जोंक की तरह सिर्फ खून चूसना। इसके सिवा उसका अन्य कोई योगदान नहीं है।

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